लेखनी कहानी -14-May-2023
बदलता मौसम-
बाहर से भीतर तक
पल-पल धधकता चैत
आज कल सबको बेचैन
और अधमरा कर फेंक देता है
शाम की ढ़लती कुछ-कुछ
अंधेरी कोठरी में
अपनी मनमानियों को
बेलगाम करके किसी बेलगाम
घोड़े के पीठ पर बैठे
आततायी राजा के विद्रोह की तरह
या फिर तोड़ फोड़ हिंसा के इरादे से
निकले कुछ अनैतिक तत्वों के
बिना मतलब जुनून की तरह
चुभता रहता है हर समय
बदन में गर्म शूल की नोक पर
बैठे खरबूज की तरह
लू और लंपट के तरजीह पर
फनफनाता पकड़ लेता है
गला आने जाने वाले हर इंसान का
और लाकर पटक देता है
बेजान करके उसके चौखट
या किसी दफ्तर के दरवाजे पर
घड़ियाल की तरह अक्सर निगल जाना चाहता है
पलक झपकते ही पल भर में
धधकता चैत का आजकल
रात की मद्धम शीतलता का
अपहरण कर बैठ जाता है
किसी गुप्त स्थान पर जिसे
ढूँढते-ढूॅंढ़ते कब सबेरा आपको
चिढ़ाने लगा पता ही नहीं चलता
सावधान बादलों के बर्दास्त सीमा
अब और इंतजार नहीं करना चाहती
इस चैत के तपन और अंगार को
अपने बदन से खुरच कर किसी
लबलबाती नदी में फेंक देना चाहती है
लेकिन मजबूरियाँ उसका
कदम रोक ले रही ये कहकर
अभी नदियाँ सूखी हैं उनके
गर्भ में अभी पर्याप्त पानी नहीं है।
किरण मिश्रा# निधि#